राज्य सरकारें सुशासन के प्रति दूरदर्शिता का प्रदर्शन नहीं कर रही हैं। टीएंडसीपी अधिनियम की अवधारण फीस संरचना में संशोधन फिर से इस तथ्य को दर्शाता है कि लगातार सरकारें अवैध निर्माणों को बढ़ावा दे रही हैं। इस तरह के अवैध निर्माणों से न केवल विकास बाधित होता है, बल्कि भविष्य में कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। राजधानी शिमला में यह देखा जा सकता है । पार्किंग, रिक्त स्थान की कमी, ट्रैफिक जाम, सड़क की कम चौड़ाई, ऐसी योजनाओं के कुछ परिणाम हैं।
एक टी एंड सीपी अधिकारी ने सूचित किया “टीएंडसीपी अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, यदि कोई निर्माण भले ही योजनाओं के अनुमोदन के बिना (लेकिन कानून के दायरे में) या फिर 10% तक डीवियेशन वाले मामले हों तो, तो सरकार द्वारा प्रतिधारण के लिए विचार किया जा सकता है।” इस प्रावधान का उपयोग करते हुए राज्य सरकारों ने कई बार रिटेन्षन नीतियों की घोषणा की, जिसके परिणामस्वरूप शहरों में बेतरतीब विकास हुआ और जिसके बारे में NGT ने भी कॉमेंट किया।
नए नियम के अनुसार, विभाग ने योजनाओं के अनुमोदन के बिना निर्मित भवनों (लेकिन कानून के दायरे में) याँ फिर 10% डीवियेशन वाले मामलों के लिए प्रतिधारण शुल्क बढ़ा दिया है। पहले यह शुल्क मूल लागत का 2 -4 गुना था। हालांकि अब यह लागत का 4-6 गुना होगा।
“जिन लोगों के पास अवैध इमारतों को बनाने की हिम्मत है, वे आम तौर पर अमीर और प्रभावशाली हैं। शायद ही कभी एक आम आदमी इस तरह के कदम पर विचार करेगा, ”एक नागरिक संजय ने तर्क दिया। उन्होंने कहा, “शुल्क में इस संशोधन का मतलब यह है कि स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया जा रहा है की थोड़ा बहुत ही सही पर अवैध निर्माण बिना अनुमति के उठाया जा सकता है, और फिर कुछ अतिरिक्त लागत (तय की गई पिछली दर पर 50% अतिरिक्त) दे कर वेध कर दिया जा सकता है।” उन्होंने मजाक किया ” ऐसा लगता है की सरकारों को सिर्फ़ पैसे से मतलब है, चाहे इस तरह के निर्माण के परिणाम कोई भी हों।”
कानून का पालन करने वाले एक अन्य नागरिक ने टिप्पणी की यह कदम साथ ही यह भी इंगित करता है, कि न्यायपालिका भी सरकारों को लगातार अवैध निर्माणकर्ताओं को सुविधा देने से रोकने में विफल रही है।
राज्य उच्च न्यायालय ने सितंबर 2016 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा पारित किए गए बिल के माध्यम से एचपी टाउन एंड कंट्री प्लानिंग एक्ट में किए गए संशोधन को रद्द कर दिया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अवैध रूप से उठाए गए भवनों / संरचनाओं को “जैसा है, जहां है” के अधार पर नियमित करने के लिए यह बिल पास किया था। 500 से 1,000 रुपये प्रति वर्ग फीट दे कर इस तरह के निर्माणों को नियमित किया जाना था। इस मामले में उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति तरलोक सिंह चौहान की खंडपीठ ने कहा था कि संशोधित अधिनियम में धारा 30-सी को शामिल करना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, जो कानून के समक्ष समानता का प्रावधान करती है। संशोधन को रद्द करने से पहले, पीठ ने यह भी कहा था कि न केवल यह प्रमुख अधिनियम के उद्देश्य के साथ विरोधाभासी है, बल्कि “मनमाने ढंग से, तर्कहीन, अतार्किक और अनुचित भी है। संशोधन को कुछ याचिकाकर्ताओं ने चुनौती दी थी यह पक्ष रखते हुए की यह कदम ईमानदार लोग जिन्होंने निर्माण के संबंध में सभी नियमों का पालन किया है के साथ धोखा है ।
सभी सरकारें यह भलीभाँति जानती हैं की राज्य के तकरीबन सभी शहरी इलाक़े ट्रैफिक जाम, पार्किंग स्थलों की कमी, सड़क की चौड़ाई कम, पारिस्थितिक असंतुलन और निधि जैसी समस्याओं से जूझ रहें हैं । फिर भी बार-बार राज्य सरकारें इस तरह की सभी प्राथमिकताओं को एक तरफ रखकर अवैध निर्माणों को वैध बनाने के लिए लगी हुईं हें। शायद ज़्यादाकर ईमानदार लोगों को अनदेखा करके कुछ ग़लत काम करने वाले लोगों को खुश करना ही इन सरकारों की रीत है।